मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सावधान, गिर रहा है अंतरिक्ष से मलबा !



सेंटर फॉर ऑरबिटल एंड रीइंट्री डेबरीज स्टडीज ने खबर दी है कि अगले 48 घंटों के भीतर अंतरिक्ष मलबे के दो बड़े टुकड़े पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश कर सकते हैं। इनमें से एक है 2000 किलोग्राम वजनी सेंटॉर रॉकेट का बेकार हिस्सा और दूसरा है 2500 किलोग्राम वजनी डेल्टा-3 रॉकेट का एक बेकार हिस्सा। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि सेंटॉर रॉकेट का मलबा 3 फरवरी को और डेल्टा-2 रॉकेट का मलबा 4 फरवरी को पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश कर रहा है। पृथ्वी के तीन-चौथाई हिस्से में पानी है इसलिए हमें इससे घबराने की जरूरत नहीं है, उम्मीद है कि अंतरिक्ष से आ रहा ये मलबा समंदर में ही कहीं आ गिरेगा। लेकिन फिरभी वैज्ञानिक ग्राउंड ट्रैकिंग सिस्टम से इस गिरते हुए मलबे पर निगाहें जमाए हुए हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती पर गिर रहे इन मलबों से घबराने की जरूरत इसलिए भी नहीं है, क्योंकि वायुमंडल में प्रवेश करते ही ये धधक उठेगें और इनका ज्यादातर हिस्सा या तो भाप बनकर उड़ जाएगा...या फिर ये भी हो सकता है कि एक धमाके के साथ ये कई टुकड़ों में बंट जाए।

तू अकेला नहीं


हिंदी में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने और लोगों को जागरूक करने में प्रतिबद्ध मेरे मित्र और गुरु बलदेवराज दावर जी की ये कविता मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। दावर जी देश की ऐसे अकेले और अदभुत विद्वान हैं जिन्होंने विज्ञान गीता की रचना की है। प्रस्तुत कविता विज्ञान गीता से ही है -


जिस खाल के अंदर तू रहता है,

वह तेरे सैल्फ की सीमा नहीं।

जिस काल में तू जी रहा है,

वह भी तेरी हस्ती की पहली या आख़िरी घड़ी नहीं।

तू अपने को क्षुद्र या क्षण-भंगुर प्राणी न समझ।

तू अकेला नहीं; तू अलग नहीं; न ही तू स्वतंत्र है।

तेरी हर धड़कन, तेरी हर साँस; और तेरी हर सोच

समूचे प्राणीजगत की धड़कनों, सांसों और सोचों का एक हिस्सा है।

... इस लिए, हे अर्जुन, जिस जल की तू मछली है

उस जल को अपने शरीर से पोंछने की बेकार कोशिश न कर।

कछुए की तरह अपने को समेटने की चेष्टा न कर।

बल्कि अपने को ढीला छोड़ दे।

जिस सरोवर में तू रहता है उसमें अपने को शरबत की तरह घोल दे।

फिर देख अपने विराट और विशाल रूप को

और महसूस कर कि तेरा विस्तार कहाँ तक फैला हुआ है।


साभार,

बलदेव राज दावर कृत'विज्ञान गीता' के १८वेँ अध्याय से

शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

दिन के उजाले में चंद्रमा और वीनस का रोमांस

सितारों से भरा आसमान, हम सबको आवाजें देता है। लेकिन, क्या हो अगर सितारे दिन में नजर आने लगें ? क्या कभी आपने दिन की खिली रोशनी के बीच, आसमान में दमकते किसी सितारे को देखा है ? नहीं, तो ये देखिए। 30 जनवरी को भरी दोपहर करीब 12 बजकर 30 मिनट पर आसमान में अर्धचंद्र के साथ दमकता एक सितारा सारे देश में देखा गया। ये तस्वीर ली है देश में खगोल साइंस के सबसे बडे़ संस्थान इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स यानि आयुका, पुणे में साइंस ऑफिसर अरविंद परांजपे और उनकी टीम ने।
चांद के साथ दमकता ये सितारा , दरअसल कोई सितारा नहीं, बल्कि ये है हमारा पड़ोसी ग्रह शुक्र। शुक्र की चमक आजकल इतनी है कि लगता है किसी ने आसमान में एक बल्ब जला दिया हो। 30 जनवरी को शुक्र हमसे अपेक्षाकृत करीब था, इसलिए उसकी चमक भी काफी तेज थी, इतनी कि दिन के उजाले में भी वो साफ नजर आ रहा था। 30 जनवरी को शुक्र और चंद्रमा का कंजक्शन भी था, इसलिए सारी रात आसमान में चंद्रमा और वीनस का रोमांस चलता रहा।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

वेलकम, कॉमेट लुलिन !



हमारे सौरमंडल में घूमते आवारा धूमकेतुओं में से एक आहिस्ता-आहिस्ता हमारे करीब आ रहा है। नहीं. इससे डरने या घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ये हमले टकराने नहीं जा रहा। इस धूमकेतु यानि कॉमेट का नाम है लुलिन। कॉमेट लुलिन की ये तस्वीर 26 जनवरी को जर्मनी के एस्ट्रोफोटोग्राफर गुंथर स्ट्रॉच ने ब्रोकेन में अपनी घरेलू ऑब्जरवेटरी से ली है। इस तस्वीर में कॉमेट लुलिन का रंग हरा नजर आ रहा है, इसकी वजह ये है कि कॉमेट लुलिन जहरीली गैसों का भंडार है, जिनमें से मुख्य हैं, साइनोजेन और डाईएटॉमिक कार्बन। साइनोजेन और डाईएटॉमिक कार्बन दोनों ही सूरज की रोशनी पड़ने पर हरे रंग से चमकने लगते हैं।
1910 में एक खबर ने दुनियाभर में हड़कंप मचा दी थी। ये वो वक्त था जब कॉमेट हेली पृथ्वी के करीब से गुजर रहा था, उस वक्त खबर फैली थी कि साइनोजेन से भरी कॉमेट हेली की पूंछ पृथ्वी के वायुमंडल को इस जहरीली गैस से भरने वाली है। बाद में साबित हो गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। कॉमेट लुलिन के पास हेली की पूंछ से कहीं ज्यादा जहरीली साइनोजन गैस मौजूद है और ये कॉमेट 24 फरवरी को पृथ्वी के करीब से गुजर रहा है। लेकिन इस बार भी घबराने जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि लुलिन की पृथ्वी से करीबी भी हमसे 3 करोड़ 80 लाख मील तक दूर होगी। ये दूरी इतनी है कि 24 फरवरी को भी हम इसे आंखों से नहीं देख पाएंगे, इसे देखने के लिए जरूरत होगी किसी टेलिस्कोप की।

शनिवार, 24 जनवरी 2009

देश के अलग-अलग शहरों से सूर्यग्रहण का समय

जगह ग्रहण की शुरुआत ग्रहण खत्म
अगरतला 15h 01.५म 16h 00.७म
बंगलोर 14h 33.१म 15h 56.७म
भुबनेश्वर 14h 54.७म 15h 59.८म
चेन्नई 14h 28.९म 16h 04.८म
कोचीन 14h 19.३म 15h 59.3m
कटक 14h 56.०म 15h 58.९म
गुवाहाटी 15h 16.५म 15h 48.१म
हैदराबाद 15h 02.२म 15h 39.9m

आसमान में अग्निचक्र


आइए, 26 जनवरी को बोर्नियो चलें, घने जंगलों से घिरे इस द्वीप में इस दिन का सूर्यास्त बेहद खास होगा। ऐसे सूर्योदय को देखना तो दूर अब तक किसी ने ऐसे नजारे की कल्पना भी नहीं की होगी। हिंद महासागर के दूर समुद्री क्षितिज में डूबता हुआ सूरज ऐसा अदभुत दृश्य दिखाएगा जिसे देख आप सम्मोहित से रह जाएंगे। जी हां बोर्नियो में डूबता हुआ सूरज एक अग्निचक्र के जैसा नजर आएगा, बिल्कुल इस तस्वीर की तरह। अग्निचक्र सूर्योस्त का ये अनोखा नजारा जावा और सुमात्रा के आसपास के द्वीपों से भी नजर आएगा।
दरअसल 26 जनवरी को इस साल का पहला सूर्यग्रहण पड़ रहा है और ये एन्युलर है। एन्युलर यानि सूरज और पृथ्वी के बीच में चंद्रमा की स्थिति कुछ ऐसी होगी कि चंद्रमा की छाया सूरज को पूरी तरह से ढंक तो लेगी लेकिन डायमंड रिंग नहीं बनेगी। बल्कि सूरज की से काला और चारों ओर से धधकते हुए छल्ले सा दिखेगा। बिल्कुल इस तस्वीर की तरह। एन्युलर सूर्यग्रहण का नजारा दक्षिण अफ्रीका, मेडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया, और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ हिस्सों से नजर आएगा। भारत में कुछ दक्षिणी इलाकों, पूरे पूर्वी तटीय इलाके, उत्तर-पूर्व के ज्यादातर इलाकों, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और लक्ष्यद्वीप से नजर आएगा।
भारतीय समय के अनुसार सूर्यग्रहण का समय अलग-अलग शहरों के हिसाब से कुछ इस प्रकार है।
सूर्य ग्रहण की शुरुआत सुबह 10 बजकर 26 मिनट और 6 सेकेंड पर होगी। एन्युलर एक्लिप्स की शुरुआत होगी 11 बजकर 35 मिनट 8 सेकेंड पर और अग्निचक्र नजर आएगा 1 बजकर 28मिनट और 6 सेकेंड पर इस वक्त ग्रहण चरम पर होगा। दोपहर बाद 3 बजकर 21 मिनट और 6 सेकेंड पर अग्निचक्र हटना शुरू हो जाएगा और 4 बजकर 30 मिनट और 7 सेकेंड पर ग्रहण खत्म हो जाएगा।
ध्यान रखने की बात ये है कि भारत में कहीं भी अग्निचक्र नजर नहीं आएगा, यहां केवल आंशिक सूर्यग्रहण ही दिखेगा। देश के अलग-अलग शहरों में सूर्यग्रहण का समय कुछ इस तरह है -

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में छेद


हमारी प्यारी धरती का रक्षा कवच टूट रहा है। ओजोन पर्त के बाद अब पृथ्वी का एक और रक्षा कवच खतरे में है। ये रक्षा कवच है पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र। ताजा जानकारी ये है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में भी छेद हो रहे हैं। अंतरिक्ष से पृथ्वी की निगरानी कर रहे नासा के इमेजर फार मैग्नेटोपॉज - टू - ऑरोरा ग्लोबल एक्सप्लोरेशन (इमेज) सेटेलाइट ने ये चौंकाने वाली खोज की है। यूरोपियन स्पेस एजेंसी के सेटेलाइट 'क्लस्टर' ने इस खतरे की पुष्टि कर दी है। छेद तो ओजोन पर्त में भी है। फिर पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में छेद इससे किस तरह अलग है? इसका क्या मतलब है ? और इससे पृथ्वी को क्या खतरा है? इन सवालों के जवाब जानने से पहले पृथ्वी के रक्षा कवच के बारे में कुछ तथ्यों को जानना जरूरी है।
खतरे में रक्षा कवच
ओजोन पर्त की तरह ही पृथ्वी को चारों ओर से घेरे चुंबकीय क्षेत्र भी हमारी धरती और इस पर फलते-फूलते जीवन के लिए एक बेमिसाल रक्षा कवच है। साइंटिस्टों ने 1980 में पता लगाया था कि पृथ्वी के वातावरण में प्रदूषण बढ़ने के कारण ओजोन की पर्त कमजोर पड़ रही है। ओजोन पर्त सूर्य की अल्ट्रावायलेट यानि पराबैंगनी किरणों को धरती पर पहुंचने से रोकती हैं। 1997 में पहली बार पता चला कि अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन पर्त में एक छोटा छेद हो गया है। ओजोन पर्त के छेद को भरने के लिए तमाम कोशिशें की गईं लेकिन इसका अब तक कोई फायदा नहीं हुआ है। ओजोन पर्त में छेद का पता चलने के दस साल बाद अब एक दूसरी बुरी खबर आई है। धरती का चुंबकीय क्षेत्र भी खतरे में है। धरती का अपना एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र है। ये चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी को चारों ओर से घेरे रहता है। सूर्य जीवनदायी है, लेकिन जब रौद्र रूप धारण करता है तो इससे सौर विकिरण के भयंकर तूफान उत्पन्न होते हैं। सौर विकिरण के ये तूफान लाखों मील का सफर तय कर सौरमंडल में आगे बढ़ते चले जाते हैं। बुध और शुक्र के बाद इनके रास्ते में हमारी पृथ्वी आती है। लेकिन पृथ्वी को बगैर कोई नुकसान पहुंचाए सौर विकिरण का तूफान आगे बढ़ जाता है। क्योंकि हमारा चुंबकीय क्षेत्र सौर विकिरण के तूफान को पृथ्वी से परे ढकेल देता है। बुध और शुक्र ग्रह इसीलिए निर्जीव हैं क्योंकि सौर विकिरण के तूफानों की लगातार मार ने वहां जीने के लायक स्थितियां ही खत्म कर दी हैं। शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी का रक्षा कवच है जो सदियों से धरती पर जीवन की सुरक्षा कर रहा है। जानते हैं कि चुंबकीय क्षेत्र बनता कैसे है और इसमें छेद क्यों हो रहे हैं।
चुंबकीय क्षेत्र
पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की खोज इसके गर्भ से ही शुरू होती है। इस रहस्य की चाभी पृथ्वी के आउटर और इनर कोर में छिपी है। पृथ्वी का इनर कोर बिल्कुल ठोस है, जबकि आउटर कोर लोहे और निकिल जैसी पिघली धातुओं के लावे से बना है। आउटर कोर में धातुओं के लावे का तापमान 7500 केल्विन ( 7000 से 12000 डिग्री फॉरेनहाइट) होता है। धरती के केंद्र या कोर का तापमान सूरज के तापमान से भी ज्यादा है। हमारे सौरमंडल के केंद्र सूर्य की सतह का तापमान केवल 6000 डिग्री केल्विन है। यानि हमारी धरती के केंद्र में ही एक सूरज छिपा हुआ है। सूर्य की तरह पृथ्वी का कोर भी नाभिकीय फिशन रिएक्टर की तरह काम करता है। चारों ओर लावे से घिरे पृथ्वी के ठोस इनर कोर को लगातार घूमने की ऊर्जा भी इसीसे मिलती है।
पृथ्वी की ठोस इनर कोर घड़ी की सूइयों की दिशा और इसके विपरीत बारी-बारी से घूमती रहती है। इनर कोर के इस प्रकार घूमने से ही पृथ्वी का शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। ये बिल्कुल डायनमो के घूमने से बिजली बनने जैसा ही है। पृथ्वी का शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र सौर विकिरण के घातक तूफानों को प्रतिकर्षण बल से परे धकेल देता है। चुंबकीय क्षेत्र कितना शक्तिशाली है ये कोर के घूमने की गति पर निर्भर करता है।
नासा और यूरोपियन स्पेस एजेंसी के सेटेलाइट्स, इमेज और क्लस्टर ने पता लगाया है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में छेद हो रहे हैं। इसका सीधा अर्थ ये है कि पृथ्वी के इनर कोर के घूमने की गति मंद पड़ रही है। जब भी ऐसा होता है चुंबकीय क्षेत्र कमजोर पड़ने लगता है और इसमें जगह-जगह छेद होने लगते हैं।
चुंबकीय क्षेत्र में छेद के खतरे
करीब हर तीन लाख साल बाद पृथ्वी के कोर का घूमना बंद हो जाता है। ऐसा होते ही पृथ्वी का रक्षा कवच चुंबकीय क्षेत्र अपने आप खत्म हो जाता है। यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया के जियोफिजिसिस्ट गैरी ग्लाइट्जमेइर बताते हैं कि मंगल ग्रह के निर्जीव होने की एक वजह ये भी है कि उसके कोर का घूमना बंद हो चुका है। आज मंगल के चुंबकीय क्षेत्र के अवशेष ही बचे हैं। कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के जियोफिजिसिस्ट डेविड स्टीवेंसन का कहना है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में छेद आने वाले खतरे की चेतावनी है। इससे साबित होता है कि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र हर दिन कमजोर पड़ता जा रहा है। खतरा ये है कि चुंबकीय क्षेत्र के छेद से होकर सौर विकिरण और कास्मिक किरणें बेरोक-टोक सीधे धरती पर आएंगी। धरती पर जो इलाके इनके प्रभाव में आएंगे वहां कैंसर के मामले तेजी से बढ़ेंगे। इसके अलावा संचार व्यवस्था भी बार-बार ठप होगी।
सबसे बड़ा खतरा
नासा के नेशनल सेंटर फार एटमॉस्फियरिक रिसर्च (एनसीएआर) की साइंटिस्ट मौसमी दिग्पति और उनकी रिसर्च टीम ने बताया है कि एक बड़ा खतरा आने को है। सूर्य से सौर विकिरण का अब तक का सबसे बड़ा तूफान उठने वाला है। मौसमी दिग्पति और उनकी टीम की गणना है कि ये तूफान 2012 में पृथ्वी से टकराएगा।
नेशनल स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी सेंटर ( एनएसएसटीसी) के सोलर फिजिसिस्ट डेविड हैथवे भी इससे सहमत हैं। लेकिन हैथवे का कहना है कि ये भयंकर सौर तूफान इससे पहले शायद 2010 या 2011 में ही पृथ्वी से आ टकराएगा।
सामान्य स्थितियों में सौर विकिरण के इस भयंकर तूफान से धरती पर कोई गंभीर नुकसान नहीं होता। क्योंकि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इस सौर तूफान के ज्यादातर घातक विकिरण को परे ढकेल देता। लेकिन अब स्थितियां पहले जैसी नहीं हैं।
पृथ्वी के सबसे मजबूत रक्षा कवच चुंबकीय क्षेत्र में छेद है और सूरज से सबसे भयंकर सौर विकिरण का तूफान उठने को है। जब रक्षा कवच कमजोर है तो इसका सीधा असर धरती और यहां फल-फूल रहे जीवन पर पड़ेगा। सौर विकिरण और कॉस्मिक किरणें चुंबकीय क्षेत्र के छेद से होकर सीधे धरती तक आएंगी। खतरे का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि अंतरिक्षयात्रियों को सौर विकिरण और कॉस्मिक किरणों से बचाने के लिए खास स्पेस सूट पहनाया जाता है। कॉस्मिक किरणें रास्ते में आने वाली हर चीज को भेदती हुई निकल जाती हैं। हमें एहसास भी नहीं होगा और कॉस्मिक किरणें हर पल हमारे मांस और हड्डियों को भेद रही होंगीं। ऐसा 2010 से 2012 के दौरान होगा। घरेलू और सेटेलाइट संचार व्यवस्था ठप हो जाएगी, टेलीविजन ट्रांसमिशन बाधित हो जाएगा, ध्रुवीय प्रदेशों में रात को नजर आने वाली पोलर लाइट्स शायद आधे ग्लोब तक दिखेंगी। अंतरिक्ष में तैर रहे इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन और दूसरे सेटेलाइट्स को नुकसान पहुंच सकता है और पृथ्वी के कुछ हिस्सों में शायद कैंसर के मामलों की बाढ़ आ जाएगी।
राहत की बात
धरती के इनर कोर के घूमने की रफ्तार लगातार कम होती जा रही है। इसी के साथ पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र भी लगातार कमजोर होता जा रहा है। पृथ्वी के इस रक्षा कवच में छेद इस बात की चेतावनी है कि अब वो दिन दूर नहीं जब चुंबकीय क्षेत्र पूरी तरह खत्म हो जाएगा। ऐसा कब होगा, इसकी तिथि और समय की घोषणा सही-सही नहीं की जा सकती। ये सौरमंडल की सबसे बड़ी दुर्घटना होगी, जो शायद कल भी घट सकती है या फिर एक हजार या एक लाख साल बाद।
सबसे बड़ी राहत की बात ये होगी कि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र खत्म होगा और ठीक अगले ही सेकेंड ये फिर से उत्पन्न हो जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि पिघली धातु के लावे से बना पृथ्वी का आउटर कोर ऐसे न्यूक्लियर रिएक्टर की तरह है जिसमें अरबों छोटी-छोटी नाभिकीय अभिक्रियाएं शुरू होती हैं, फिर बंद हो जाती हैं और फिर एक नए झटके के साथ शुरू हो जाती हैं। आउटर कोर में लगातार रुकती और शुरू होती नाभिकीय अभिक्रियाएं ही स्थिर हो चुके ठोस इनर कोर को फिर से घूमने के लिए जरूरी झटका देंगी। उम्मीद है कि इसके साथ ही इनर कोर का घूमना दोबारा शुरू हो जाएगा और पृथ्वी का खोया हुआ चुंबकीय क्षेत्र फिरसे वापस लौट आएगा। हां ये जरूर हो सकता है कि इस नए चुंबकीय क्षेत्र के ध्रुव बदल जाएं। जियोफिजिसिस्ट जे मार्विन हर्नडोन कहते हैं कि पृथ्वी के ध्रुवों में अंतिम बार परिवर्तन 780,000 साल पहले हुआ था। चुंबकीय क्षेत्र में छेद का पता चलने से ऐसा दोबारा होने की संभावना बढ़ गई है।
रहस्य को सुलझाने की कोशिश जारी
ये सच है कि हम सही-सही ये नहीं बता सकते कि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र कितने दिनों का मेहमान है। लेकिन फिर भी साइंटिस्ट पता लगाने में जुटे हैं कि चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता किस दर से कम हो रही है। इसके लिए सदियों पुराने दस्तावेज फिर से पढ़े जा रहे हैं, खासतौर पर जहाजियों के।
इंग्लैंड के कैप्टन कुक ऐसे दुस्साहसी लोगों में से थे जिन्होंने 18 वीं शताब्दी में समुद्री जहाज से दुनिया का चक्कर लगाया था। साइंटिस्ट आज कैप्टन कुक और उससे भी पहले 16 वीं शताब्दी के जहाजियों के यात्रा रिकॉर्ड गहराई से जांच रहे हैं। इन जहाजों की तकदीर कुतुबनुमे पर टिकी होती थी। जिसकी मदद से वो समुद्र में अपनी सही दिशा खोजते थे। सदियों पहले दुनिया का चक्कर लगाने के लिए कैप्टन कुक ने उसी समुद्री रास्ते का चुनाव किया होगा जिस दिशा में उनके कुतुबनुमे ने इशारा किया। कुतुबनुमे की सूई उसी तरफ घूमी होगी जहां पृथ्वी की चुंबकीय रेखा सबसे प्रबल होगी। इस सिद्धांत की मदद से साइंटिस्ट लगातार बदलती चुंबकीय रेखाओं की प्रकृति जानने की कोशिश कर रहे हैं। इससे अब तक ये जरूर पता चला है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का व्यवहार अब वैसा नहीं है जैसा कि सदियों पहले इन जहाजियों के वक्त हुआ करता था।
पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र धरती पर मौजूद हर चीज पर असर डालता है। हर पल एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र के घेरे में रहने के कारण धरती के कण-कण में चुंबकीय प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। साइंटिस्ट अब धरती की सबसे पुरानी चट्टानों, गहरी खदानों और तेल कुओं की खुदाई के दौरान हजारों मीटर गहराई से निकली रेत और मिट्टी के नमूनों को प्रयोगशाला में जांचा जा रहा है। इनके चुंबकत्व की गणना की जा रही है और इस तरह पता लगाया जा रहा है कि बदलते वक्त से साथ पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का व्यवहार किस तरह बदल रहा है।
अब तक की गणना और आंकड़ों के हिसाब से पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र आने वाले कल से लेकर 2000 साल बाद कभी भी खत्म हो सकता है। ये सबसे खतरनाक वक्त होगा और तब पृथ्वी और इस ग्रह पर मौजूद जिंदगी सौर विकिरण और कॉस्मिक किरणों के वार झेलने को बेबस होगी। उम्मीद है कि ऐसा बेहद कम समय के लिए ही होगा। रुकने के बाद पृथ्वी का इनर कोर अपने आप दोबारा घूमने लगेगा और तब पृथ्वी के ध्रुव शायद वही रहें या बदल जाएं, लेकिन पृथ्वी का रक्षा कवच चुंबकीय क्षेत्र जरूर वापस आ जाएगा। ऐसा पहले भी हो चुका है और तब तमाम आसमानी आफतों के बावजूद मानव अपना अस्तित्व बचाने में सफल रहा था। यकीन रखिए कि इस बार भी हम लोगों को कुछ नहीं होगा।
संदीप निगम